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रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं
जाहिरन खा के वो ओहदे की क़सम बैठे हैं

बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले
दीदानम सिर्फ़ उन्हीं यादों में हम बैठे हैं

खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं

बस यही सोच के हम राह में ठहरे ही नहीं
लुत्फ़ मंज़िल का उठाते हैं जो कम बैठे हैं

चारसू आग है नफ़रत की न जाने फिर क्यों
"हाथ पर हाथ धरे अहले क़लम बैठे हैं"

आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
सोलह सिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं

बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'
गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं