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रघुविन्द्र यादव के दोहे-3 / रघुविन्द्र यादव

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कनक खेत में खप गई, सस्ती बिकी कपास।
रामदीन रुखसत हुआ, खा गोली सल्फास॥

रहा बिछाता उम्रभर, जो राहों में शूल।
उसका भी अरमान है, पग पग बरसें फूल॥

लड़ें कहाँ तक द्रौपदी, कौरव कुल के साथ।
द्रौण पितामह कर्ण का, जिनके सिर पर हाथ॥

घुसे हमारी पीठ में, खंज़र जितनी बार।
दुश्मन गायब थे सभी, हाजिर थे बस यार॥

ज्ञानी ध्यानी मौन हैं, मूढ़ बाँटते ज्ञान।
पाखंडों का दौर है, सिर धुनता विज्ञान॥

जिसने घुसकर भीड़ में, बस्ती फूँकी रात।
सुबह हुई करने लगा, वही अमन की बात॥

जब से महँगी हो गई, बंजर पड़ी ज़मीन।
लक्ष्मण भी श्रीराम का, करता नहीं यकीन॥

नए दौर के प्यार की, खौफ़नाक तस्वीर।
लैला दौलत माँगती, राँझा गर्म शारीर॥

जीवनभर करता रहा, जो खुद रोज शिकार।
खौफ़जदा है आजकल, जंगल का सरदार॥

पंख काटकर बाज़ के, खूब हँसा शैतान।
उसका ऊँचा हौसला, भरने लगा उड़ान॥

बहुत भयावह हो गए, उत्पीड़न के चित्र।
रक्त पिपासे घूमते, गली गली में मित्र॥

जंगल के राजा बने, जब जब दुष्ट सियार।
चुन चुन कर मारे गए, देशभक्त सरदार॥

काटा करते जेब जो, लगे काटने शीश।
उधर पुजारी कह रहे, खुद को ही जगदीश॥

झूठ युधिष्ठिर बोलते, कर्ण लूटते माल।
विदुर फिरौती ले रहे, केशव करें मलाल॥

अपराधी के पक्ष में, होता खड़ा समाज।
करे झूठ की पैरवी, तनिक न आती लाज॥

कैसे कागज़ पर लिखें, अपने मन की बात।
यहाँ हाथ भी हाथ से, कर देता है घात॥

उनके सारे व्यर्थ हैं, जप, तप, तीरथ, दान।
जो अपने माँ बाप का, करें नहीं सम्मान॥

किस पर अब संशय करें, किस पर करें यकीन।
शेष बचा सच झूठ में, अंतर बहुत महीन॥

अपने भाई हैं नहीं, अब उनको स्वीकार।
चूहे चुनना चाहते, बिल्ली को सरदार॥

देह दिखाकर बेचती, नारी अब उत्पाद।
कूद रही है गर्त में, होने को आज़ाद॥