भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रचना है निरन्तर / भारत यायावर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचना ही रहना है
गढ़ना ही बचना है
अपने होने को दिखाना
मौन को प्रकट करना
भाव को शब्द देना
विचार को चलना सिखाना
एक अरूप को रूप में बदलना

उदासी के क्षणों में भी हँसना
प्रेम के अमूर्त वैभव को भाषा का आवरण देना
घृणा की लपट को प्रकट करना
चलते हुए
चलाते हुए
बढ़ते हुए
बढ़ाते हुए
अपने भीतर की गर्मी को बचाते हुए
सोचते हुए
विचारते हुए
खोजते हुए
खो जाते हुए
गुज़रते समय के साथ गुज़रते हुए
रचना का मर्म रचाते हुए
रचना ही रचना है
रचना ही बसना है
रचना ही बचना है
सुन्दर को और सुन्दर करना
अभाव को भरना निरन्तर
नफ़रत की दुनिया में सद्भाव रचना
लोगों के बीच के अलगाव को मिटा देना
गिरे-पड़े लोगों का सहारा बनना
रोते हुओं को हँसा देना
धुआँ-धुआँ है माहौल
एक हल्की हवा का झोंका बन उड़ा देना
वातावरण में सुगन्ध भरना
किसी के हाथों को थामे रखना
अपने भोलेपन को बचाए रखना
भाव-आकुल अन्तस को जगाए रखना

रचना है निरन्तर
अपने-आप को गढ़ते रहना
किसी चेहरे को
अपने मन में समाए रखना
कि मेरे दिल में देखो
ये देखने की चीज़ है
कि देखो
और हर शख़्स को पढ़ो
कि देखो
और कुछ न कुछ कहो
कि कहना ही रचना है
कि रचना ही सँवरना है

प्रकृति और जीवन
अन्त और अनन्त का प्रदर्शन
साकार और निराकार
चेतना का उर्ध्व गमन
रचना है निरन्तर
शब्द की अनुगूँज को
निरन्तर महसूस करना
भावावेग में व्याकुल रहना
एक सधी चाल में सीधे चलना
अपने सपनों में
उठना-बैठना
एक मदहोशी-सी बनी रहना
हर एक आवाज़ को सुनते रहना
पास रहकर भी कहीं
दूर चले जाना
दूर खड़े पेड़ों से बतिया आना

रचना है निरन्तर
अपने भीतर और बाहर को सुनना
हर कही बात को गुनते रहना
एक जुनून-सा चढ़े रहना
प्रेम की पीर को पीते रहना
कभी उड़कर
कभी गिरकर
कभी सोकर
कभी खोकर
एक एहसास में तपते रहना
एक ऊहापोह में फँसकर
बाहर आना
एक बनी बात का बिगड़ जाना
एक बिगड़ी बात का सँवर जाना
जो भी हो
जैसा भी हो
रचना है निरन्तर
कि रचना ही बचना है