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रचना / हेमन्त जोशी
Kavita Kosh से
घर के सामने रहते है कुम्हार
उनके घरों में अब नहीं चलते चाक
कहलाते हैं वो अब भी कुम्हार
बेचते हैं मिट्टी के गमले
खिलौने, दिए और झांवां
कभी-कभी दीखते हैं रंगते
कहीं और से बन आई चीज़ें
अब नहीं चलाते चाक ये कुम्हार
अब नहीं बनाते घड़े और सुराही
दूर गाँवों से
महानगरों में आकर
बेचते हैं मूर्तियाँ विशाल
सुना है अब भी होते हैं चाक
अब भी होते हैं कुम्हार
अब भी घूमते चाक पर
तरह-तरह की शक्ल लेती है मिट्टी
मेरे घर के सामने रहते हैं जो कुम्हार
उनके घरों पर अब नहीं चलते चाक।