रजनी-मुख बन तैं बने आवत / सूरदास
रजनी-मुख बन तैं बने आवत सूरदास श्रीकृष्णबाल-माधुरी
रजनी-मुख बन तैं बने आवत, भावति मंद गयंद की लटकनि ।
बालक-बृंद बिनोद हँसावत करतल लकुटधेनु की हटकनि ॥
बिगसित गोपी मनौ कुमुद सर, रूप-सुधा लोचन-पुट घटकनि ।
पूरन कला उदित मनु उड़पति, तिहिं छन बिरह-तिमिर की झटकनि ॥
लज्जित मनमथ निरखी बिमल छबि, रसिक रंग भौंहनि की मटकनि ।
मोहनलाल, छबीलौ गिरिधर, सूरदास बलि नागर-नटकनि ॥
संध्या के समय श्याम वन से सजे हुए आ रहे हैं , उनका गजराज के समान झूमते हुए मन्द गति से चलना चित्त को बड़ा रुचिकर लगता है । बालकों का समूह उन्हें अपने विनोद से हँसाता चलता है, हाथों में गायों को रोकने (हाँकने) की छड़ी है । गोपियों का मनरूपी-पुष्प इनके रूप-सुधा के सरोवर में प्रफुल्लित होता है और नेत्रों रूपी दोनों से वे उस रूप-सुधाका पान करती हैं । मानों चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ उदित हो गये हैं और उसी क्षण विरहरूपी अन्धकार (वहाँ से) भाग छूटा है । कामदेव भी यह निर्मल शोभा देखकर लज्जित हो गया है; भौंहों का चलाना तो रसिकों के लिये आनन्ददायक है । सूरदास जी कहते हैं- ये मोहनलाल गिरधारी तो परम छबीले हैं, इन नटनागर के नृत्य पर मैं बलिहारी हूँ ।