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रणभूमि / निदा नवाज़
Kavita Kosh से
गोरी हथेली पर
तुम्हारा मौन चहरा
शांत
गम्भीर
प्रश्नों का एक ढेर लिए
जैसे सुनहरी थाली पर
अधखिला गुलाब
तुम्हारी पथराई आँखें
शापित
बर्फीली
उस स्वयंवर का
प्रतिबिम्ब लिए
जो देखते-देखते
रणभूमि में बदल गया
और अब अपने
राजकुमार की प्रतीक्षा में टकटकी बाँधे
तुम्हारा नख-शिख
पवित्र
क्रोध –भरा
जैसे अपने भक्तों से
रूठी देवी
आओं
कहीं तुम टूट न जाओ
इस बारुद भरे शहर में
तुम्हें अपने मन-मन्दिर में
मैं बसा लूँ
जहाँ श्रद्धा की घंटियाँ
तुम्हारे स्वागत में, कब से
बज उठने को उत्सुक हैं।