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रद्दी / ब्रज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कितनी रद्दी इकट्ठा हो
गई है
एक घर में
जो इन दिनों कार्यालय की तरह हो चुका है
रद्दी की तरह
उलझ रहे हैं विचार भी मन में
देश में इसी तरह
अनेक बातें हैं
वैसे तो संसार में भी
एक अच्छा खासा भंडार है
बिना मतलब का
एक प्रति संसार
सोशल मीडिया पर भी
बहुत सारी रद्दी मौजूद है
रद्दी खरीदने वाला
उफ़ बहुत देर से
नहीं मिल रहा
कितना काम का आदमी है
वो
जो मिल नहीं रहा है आज।
दरअसल ऐसे कई काम के आदमी
तलाशे जा रहे हैं
मिल ही नहीं रहे