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रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है / गोरख पाण्डेय

रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
रुख से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है

ऊंचे से ऊंचे उससे भी ऊंचे और ऊंचे जो रहते हैं
उनके नीचे का खालीपन कंधों से पटता जाए है

गालिब-मीर की दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है

ये तो अंधेरों के मालिक हैं हम उनको भी जाने हैं
जिनका सूरज डूबता जाये तख़्ता पलटता जाए है।