भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रविवार / नाज़िम हिक़मत
Kavita Kosh से
आज रविवार है
आज ही पहली बार
सूरज की रोशनी में बाहर मुझे लाया गया
और मैं ज़िन्दगी में पहली बार
स्तम्भित हूँ कि आसमान मुझसे इतनी दूर है !
इतना वह नीला है !
इतना वह विशाल है !
मैं वहाँ जड़ बना खड़ा रहा
फिर डरकर ज़मीन पर बैठ गया
मैंने सफ़ेद दीवार से पीठ चिपका दी
इस समय सामने वायवी स्वप्न नहीं
कोई संघर्ष नहीं, मुक्ति नहीं, पत्नी नहीं —
पृथ्वी है, सूरज है, और मैं हूँ —
सुखी हूँ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : चन्द्रबली सिंह