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रविवार / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
रविवार को देवता अलसाते हैं गुनगुनी धूप में
अपने प्रासाद के ताख़े पर वे छोड़ आए हैं आज
अपनी तनी हुई भृकुटी और जटिल दंड-विधान
नींद में मुस्कुराती किशोरी की तरह अपने मोद में है दीवार-घड़ी
ख़ुशी में चहचहा रही है घास और
चाय की प्याली ने छोड़ दी है अपनी गंभीर मुख-मुद्रा
कोई आवारा पहिया लुढ़कता चला जा रहा है
वादियों की ढलुआ पगडण्डी पर
यह खरगोश है आपकी प्रेमिका की याद नहीं
जो दिखा था, ओझल हो गया रहस्यमय झाडियों में
यह कविता का दिन है गद्य के सप्ताह में
हम अपनी थकान को बहने देंगे एड़ियों से बाहर
नींद में फैलते ख़ून की तरह
हम चाहेंगे एक धुला हुआ कुर्ता-पायजामा
और थोड़ी सी मौत