रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 2
थोड़ी-सी भी यह सुधा मनुज का
मन शीतल कर सकती है,
बाहर की अगर नहीं, पीड़ा
भीतर की तो हर सकती है।
लेकिन धीरता किसे ? अपने
सच्चे स्वरूप का ध्यान करे,
जब ज़हर वायु में उड़ता हो
पीयूष-विन्दू का पान करे।
पाण्डव यदि पाँच ग्राम
लेकर सुख से रह सकते थे,
तो विश्व-शान्ति के लिए दुःख
कुछ और न क्या कह सकते थे ?
सुन कुटिल वचन दुर्योधन का
केशव न क्यों यह का नहीं-
‘‘हम तो आये थे शान्ति हेतु,
पर, तुम चाहो जो, वही सही।
‘‘तुम भड़काना चाहते अनल
धरती का भाग जलाने को,
नरता के नव्य प्रसूनों को
चुन-चुन कर क्षार बनाने को।
पर, शान्ति-सुन्दरी के सुहाग
पर आग नहीं धरने दूँगा,
जब तक जीवित हूँ, तुम्हें
बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।
‘‘लो सुखी रहो, सारे पाण्डव
फिर एक बार वन जायेंगे,
इस बार, माँगने को अपना
वे स्वत्तव न वापस आयेंगे।
धरती की शान्ति बचाने को
आजीवन कष्ट सहेंगे वे,
नूतन प्रकाश फैलाने को
तप में मिल निरत रहेंगे वे।
शत लक्ष मानवों के सम्मुख
दस-पाँच जनों का सुख क्या है ?
यदि शान्ति विश्व की बचती हो,
वन में बसने में दुख क्या है ?
सच है कि पाण्डूनन्दन वन में
सम्राट् नहीं कहलायेंगे,
पर, काल-ग्रन्थ में उससे भी
वे कहीं श्रेष्ठ पद पायेंगे।
‘‘होकर कृतज्ञ आनेवाला युग
मस्तक उन्हें झुकायेगा,
नवधर्म-विधायक की प्रशस्ति
संसार युगों तक गायेगा।
सीखेगा जग, हम दलन युद्ध का
कर सकते, त्यागी होकर,
मानव-समाज का नयन मनुज
कर सकता वैरागी होकर।’’