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रश्मि-बाण / अज्ञेय

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    ‘‘ओ अधीर पथ-यात्री क्यों तुम
     यहाँ सेतु पर आ कर
     ठिठक गये?
     ‘‘नयी नहीं है नदी, इसी के साथ-साथ
     तुम चलते आये

     जाने मेरे अनजाने कितने दिन से!
     नया नहीं है सेतु, पार तुम
     जाने इस से कितनी बार गये हो
     इसी उषा के इसी रंग के

     इतने कोमल, इतने ही उज्ज्वल प्रकाश में।
     ठिठक गये क्यों
     यहाँ सेतु पर आ कर
     ओ अब तक अधीर पथ-यात्री?’’

     ‘‘मैं? मैं ठिठका नहीं।
     देखना मेरा दृष्टि-मार्ग से
     कितना गहरे चलते जाना है
     किसी अन्तहीन अज्ञात दिशा में!

     यहीं सेतु के नीचे देख रहा हूँ मैं केवल अपनी छाया को
     किन्तु दौड़ते, पल-पल बदल रहे
     लहरीले जीते जल पर!’’
     ‘‘देख रहे हो छाया?

     छाया को!
     अपनी को!
     क्यों तब मुड़ कर भीतर को
     अपने को नहीं देखते?

     रुकना भी तब नहीं पड़ेगा :
     जल बहता हो-बहता जाए-
     सेतु हो न हो-दिन हो रजनी,
     उषःकाल दोपहरी हो, आँधी-कुहरा हो,

     झुका मेघाडम्बर हो या हो तारों-टँका चँदोवा-
     तुम्हें न रुकना होगा
     किसी मोड़ पर, चौराहे पर,
     किसी सेतु पर!

     क्यों तुम, ओ पथ-यात्री,
     ठिठक गये?’’
     ‘‘मुझे नदी से, पथ से या कि सेतु से,
     अपनी गति से, यति से, या कि स्वयं अपने से,
     अपनी छाया छाया से अपनी संगति से
     कोई नहीं लगाव-दुराव। क्यों कि ये कोई

     लक्ष्य नहीं मेरी यात्रा के।
     चौंक गया हूँ मैं क्षण-भर को
     क्यों कि अभी इस क्षण मैं ने
     कुछ देख लिया है।

     ‘‘अभी-अभी जो उजली मछली भेद गयी है
     सेतु पर खड़े मेरी छाया-(चली गयी है कहाँ!)
     वही तो-वही, वही तो
     लक्ष्य रही अवचेतन, अनपहचाना
     मेरी इस यात्रा का!

     ‘‘खड़ा सेतु पर हूँ मैं,
     देख रहा हूँ अपनी छाया,
     मुझे बोध है नदी वहाँ नीचे बहती है
     गहरी, वेगवती, प्लव-शीला।

     ताल उसी की विरल
     लहरों की गति पर देता है प्रति पल
     स्पन्दन यह मेरी धमनी का
     और चेतना को आलोकित किये हुए है
     असम्पृक्त यह सहज स्निग्ध वरदान धूप का!

     ‘‘सब में हूँ मैं, सब मुझ में हैं,
     सब से गुँथा हुआ हूँ, पर जो
     बींध गया है सत्य मुझे वह
     वह उजली मछली है

     भेद गयी जो मेरी
     बहुत-बहुत पहचानी
     बहुत-बहुत अपनी यह
     बहुत पुरानी छाया।

     ‘‘रुका नहीं कुछ,
     सब कुछ चलता ही जाता है,
     रुका नहीं हूँ मैं भी, खड़ा सेतु पर :
     देखो-देखो-देखो-

     फिर आयी वह रश्मि-बाण, दामिनी-द्रुत!-देखो-
     बेध रहा है मुझे लक्ष्य मेरे बाणों का!’’

कलकत्ता (एक सेमिनार में बैठे-बैठे), 15 फरवरी, 1959