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रसायन रस / अमरेन्द्र

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फस्लों में अब नहीं स्वाद हैं, पहले थे वे जैसे
नहीं महकती अरहर वैसी, नहीं कतरनी धान
जब से घटा हुआ है देशी खादों का सम्मान
भैसों के पगुराने पर वंशी की धुन हो कैसे ?

सरसों में अब झाँस नहीं है, अजब अनोखा खेल
मिरची की कड़ुआहट गायब, अब मरीच है माटी
पोस्टर पर ही शोभ रही है शुद्ध-सही-परिपाटी
आलू ना अब आलू जैसा, बेल न वैसा बेल ।

स्वादहीन हंै, गंधहीन हैं, खाली रूप दिखाते
कौन ठिकाना, रूप दिखे नाµयह ईजाद का युग
दाना क्या चुगती है चिड़िया, कंकड़-माटी चुग
माटी ना माटी रह जाए कल तक आते-आते ।

स्वादों का बस नाम-जाप ही होगा भैया कल से
तर्पण होगा अब खेतों का विकट रसायन-जल से ।