रसोईघर ही था मेरा दफ़्तर / विमल कुमार
रसोई घर ही था मेरा दफ़्तर
सुबह उठ कर
बर्तन धोना
किसी फ़ाईल पर जमी धूल पोछने से अधिक तकलीफ़देह था
सब्ज़ी काटने में उँगलियाँ उसी तरह कट जाती थीं कभी
जिस तरह मेरा बॉस मुझे काट खाने को दौड़ता था ।
इस दफ़्तर में मुझे नहीं थी कोई आज़ादी
खाना भी औरों की पसन्द से बनाना होता था ।
हुक़्म भी चलते थे मुझ पर
डाँट भी पड़ती थी --
आज बहुत तेज़ है नमक दाल में
इस दफ़्तर में धुआँ बहुत था
नहीं था कोई रोशनदान
दिन-रात काम करो
पर नहीं था कोई
इसका कद्रदान
रोज़ आते-जाते
मैं हो गई थी परेशान
रसोईघर ही मेरा दफ़्तर था
जो अल्ल-सुबह खुलता था
तो देर रात बन्द होता था
इसी में जीना था मुझे
इसी में दफ़्न भी होना था,
ये एक ऐसी नौकरी थी
जिसमे मुझे कभी रिटायर नहीं होना था
लेकिन इसमें कोई तनख़्वाह भी नहीं थी मुकरर्र
न कोई नियुक्ति-पत्र
पेंशन में भी
नहीं था नसीब प्रेम
फिर भी धनिए और पराँठे की ख़ुशबू में
याद कर् लेती हूँ तुम्हें
रसोईघर ही मेरा दफ़्तर है
मैं यही मिलती हूँ हर किसी से
पसीने से लथ-पथ ।
गर्मी से परेशान
यही एक झपकी भी ले लेती हूँ
बीच-बीच में कभी-कभी
यहीं एक ख़्वाब भी देख लेती हूँ
इसी रसोई में एक छोटा-सा आसमान भी बनाया है
अपने लिए मैंने
एक कोने में कहीं
उड़ रही हूँ
इसी आसमान पर अब
एक परिन्दे की तरह
चारों तरफ हवा में अपने पंख फैलाए ...