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रस्ते में खो गये सब, मंजिल तलक न पहुँचे / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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रस्ते में खो गये सब, मंजिल तलक न पहुँचे।
आँखों में जो न डूबे, वो दिल तलक न पहुँचे।

जो पिस गये वो चमके, हाथों पे बन के मेंहदी,
यूँ तो मिटेंगे वो भी, जो सिल तलक न पहुँचे।

मैं चाहता हूँ उसकी नज़रों से क़त्ल होना,
पर बात ये ज़रा सी, क़ातिल तलक न पहुँचे।

घटता है प्यार अगर तो कल बढ़ भी जायेगा, बस,
जानम ये बात अपनी महफ़िल तलक न पहुँचे।

मंजिल हमें मिली है, मँझधार में, तो फिर क्यूँ,
मारे जहान ताना, साहिल तलक न पहुँचे।