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रहते थे सिर फिरे मेरे जैसे यहाँ ज़रूर / शैलेश ज़ैदी
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रहते थे सिर फिरे मेरे जैसे यहाँ ज़रूर।
गुज़री हैं इस गली से कभी आँधियाँ ज़रूर।।
पूछो न खण्डहरों से तबाही की दास्ताँ।
इनमें मिलेंगी तुमको मेरी सिस्कियाँ ज़रूर॥
इन झोपड़ों की राख हटाकर तो देखिए।
उट्ठेंगी इनके बीच से चिंगारियाँ ज़रूर॥
पहले से और त़ेज हुई है भंवर की प्यास।
होकर उधर से गुज़रेंगी कुछ किश्तियाँ ज़रूर॥
कुचले हैं पर्वतों के शिखर हमने पाँव से।
इन पत्थरों पे होंगे हमारे निशाँ ज़रूर ॥
पत्थर से उसने कैसे मुझे मोम कर दिया।
उस 'सायरा' के पास हैं कुछ खूबियाँ ज़रूर॥
हरगिज़ न तोड़ पायेंगे वो रिश्ते प्यार के।
आना है एक दिन उन्हें मेरे यहाँ ज़रूर॥