रहस्य वसंत की उदासी का / आलोक श्रीवास्तव-२
ऋतुओं की पुत्री
क्या याद रखेगा तुम्हें यह जाता वसंत ?
इसके झरे पत्तों में मेरा दुख है
पंखुरियों में कुछ गहरी टीसें
यह अंत है एक ऋतु का
नील फूलों पर हवा का का़तर स्पर्श
जैसे कोई सिसकी हो
क्या कभी नहीं आओगी आज के बाद ?
कभीं नहीं कर सकोगी मुझे प्यार ?
पलाश यों ही झरता रहेगा ?
कगारों पर यों ही टूटती रहेंगी लहरें ?
तुम्हारी तमाम स्मृतियाँ
जगह-जगह बिखरी पड़ी हैं -
इस रास्ते पर तुम्हारी पग-छापें हैं
तुम्हारे केशों की सुगंध
तुम्हारी अंगुलियों का स्पर्श
तुम्हारी आंखों का अबोल देखना
यहां मेरे मन में भी छूट गया है
एक छाया रह गयी है
एक दबी हंसी
एक उत्फुल्ल चेहरा
यह तुम्हारा चेहरा था
जिसे मैं कभी नहीं चूम पाया
उस पर नहीं हैं मेरे प्यार की छाप
मेरी कामना के कोमल स्पर्श
सिर्फ एक डरी छुअन है मेरे हांथों की
तुम्हारे कंधो पर
क्या भूल जाओगी उसे भी ?
कंधे पर घिर आये केशों को सँवारते
कभी याद नहीं करोगी उन हाथों को ?
उन हाथों की ज़द से बहुत दूर थे
गगन के तारे
जादू-महलों के फूल, मायावी अस्त्र-शस्त्र,
सम्मोहन विद्यायें
पर धरती के कुछ स्वप्न और
नदी का एक अंजलि जल
तुम्हारे लिये उन हाथों में सदा रहा !
तुम्हारे लौटते ही
देखो यह सारा जंगल अब उदास हो चला है
तुम जिस राजकुमार की प्रतीक्षा में थी
अंधकार में घिरते इस वन के अंधेरे में
कहीं वह भटक न जाये
मैंने उसे दूर दरख़्तों के पीछे से आते देखा
मैं बहुत डर गया हूँ उसके वैभव से
उसके श्वेत अश्वों की अयालें
अब भी मेरी आंखों में झलक रही हैं ।
देखो तो कितना विचित्र है जीवन
इस बीसवीं सदी में
रौशनियों के इस जगमग शहर में
फिर दोहरायी गयी चरवाहे की प्रेम कथा..
फिर तुम्हें ले गया
सफेद घोड़ों का बांका सवार
.......
अब खुला रहस्य वसंत की उदासी का
अपने फूल, हवा, गंध, कोंपलें समेट
जल्दी जल्दी लौटते वसंत का दर्द
अब हुआ ज़ाहिर.....
भला क्यों ठहरे वसंत इस धरती पर
क्यों खिलें वन में टेसू ?
चैत्र ही हमारी ऋतु है
वसंत हमारा सपना
इस जीवन में ऋतुओं की पुत्री
बार-बार भांति भांति से
बस तुम्हारा जाना ही सच है
और एक कथा है - नदी का एक अंजलि जल
कनेर का एक पीला फूल
अवसाद श्लथ चेहरा
दर्द से बिंधा एक दिल
किस्सा-कहानी है प्रेम
सच है --
वसंत का जल्दी जल्दी जाना,
रौशनियों का यह शहर
धीमे धीमे दुख से उबरता
एक आदमी....