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रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान-ए-ख़ातिर बस / शहराम सर्मदी

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रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान-ए-ख़ातिर बस
बग़ैर नाम हो मज़कूर हर मुसाफ़िर बस

हज़ार वादी-ए-तारीक से गुज़रता हुआ
ये इश्क़ चाहता है हो तिरा मुआसिर बस

तवील मरहला-ए-जुस्तुजू भी था दरपेश
सो इत्तिफ़ाक़ नहीं था हुआ वो ज़ाहिर बस

फिर इस के ब'अद सभी हो गया इधर का उधर
वो एक लम्हा-ए-मौजूद में था हाज़िर बस

ये इक जज़ीरा-ए-बे-राह भी नहीं रहना
तो क्या क़रीब है वो मज्मा-उल-जज़ाइर बस