भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रह गए आँसू, नैन बिछाए / गणेश बिहारी 'तर्ज़'
Kavita Kosh से
रह गए आँसू, नैन बिछाए
घन आए घनस्याम न आए
दिल तो जैसे तैसे संभला
रूह की पीड़ा कौन मिटाए
मोर मयूरी नाच चुके सब
रो रो सावन बीता जाए
पीली पड़ गई हरियाली भी
धानी आँचल सरका जाए
देख के उनको हाल अजब है
प्यास बुझे और प्यास न जाए
हुस्न का साक़ी प्यार के सागर
‘तर्ज़’ पिए और गिर-गिर जाए