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राखत देशक लाज / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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विकट ऊर्मिम डगमग नौका अछि बहैत चौवाइ,
उबडुब देश, उपाय न सूझय कोमहर आब पड़ाइ।
सत्ता-लोलुप-जन समाजकेँ कयलक खण्ड-पखण्ड
अपराधी सब छूटि खेलाइछ, सुधुआ पाबय दण्ड॥
नगरक कोन कथा, देखइ छी गाम-गाम विष व्याप्त।
धन-जनकेँ के पूछय, प्राणहुपर संकट सम्प्राप्त।
रचइत रूप गणेशक अद्भुत ई वानर बनि गेल,
पचा रहल अछि आइ छुछुन्नरि माथ चमेली तेल॥
कयल विकृत भूगोल, स्वयं इतिहास लेल ओझराय,
रूपे भेल विरूप, अकथ अछि व्यथा, कहल नहि जाय।
वंशज ककर थिकहुँ, रखलहुँ नहि ताहि सभक किछु ध्यान,
तकरे मानल सत्य, फूसि कहलक जे गढ़ि-गढ़ि आन॥
लोकक कहब छैक जे बुद्धि बढ़ै छै लगने ठेस,
ठेसी एहन ठेस लगलो पर सम्हरल नहि ई देश।
चार्वाकक अनुगमन कयल, मन-मगन रचौलहुँ रास,
धरती तँ अछि सीमित तेँ रहलहुँ नपैत आकाश॥
तेँ आकण्ठ धसल दलदलमे ताकय उबरक बाट,
ठाढ़ भेल अछि अर्थनीति पर सम्प्रति प्रश्न विराट।
नहि इतिहास जोगाय रखै अछि स्वार्थी सबहिक नाम,
किन्तु त्याग जे कयलनि तनिकर अंकित अछि सब ठाम॥
अन्हरायल पथ पकड़ल, जकड़ल अपने अपन भविष्य,
भ्रान्त भेल नेता त्याज्यहिकेँ लेलनि मानि हविष्य।
शिवि-दधीचिकेर जन्मभूमि ई राखत देशक लाज,
करत अपन सर्वस्व त्याग पुनि दीन गरीब समाज॥