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राखदान में पड़े हुए हम / कुमार शिव
Kavita Kosh से
राखदान में पड़े हुए
हम सिगार से जला किए ।
उँगलियों में दाबकर हमें
ज़िन्दगी ने होंठ से छुआ
कशमश में एक कश लिया
ढेर सा उगल दिया धुआँ
लोग मेज़ पर झुके हुए
आँख बाँह से मला किए ।
बुझ गए अगर पड़े-पड़े
तीलियों ने मुख झुलस दिया
फूँक गई त्रासदी कभी
और कभी दर्द ने पिया
झण्डियाँ उछालते हुए
दिन जुलूस में चला किए ।
बोतलों-गिलास की खनक
आसपास से गुज़र गई
बज उठे सितार वायलिन
इक उदास धुन बिखर गई
राख को उछालते रहे
हम बुलन्द हौसला किए ।