भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राख / नीलेश रघुवंशी
Kavita Kosh से
क्या कभी सोचा होगा राख ने
कि वह मँजने के काम आएगी
हाथों ने भी सोचा होगा क्या कभी
उन्हें मेहँदी और राख मिलेंगे एक संग
कितना चिढ़ती होगी मेहँदी राख से
अब राख भी क्या करे
उसका जन्म ही कोरेपन को मिटाने के लिए हुआ है
गुरुवार, 8 दिसंबर 2005, भोपाल