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राग मज़हब का सुनाना आ गया / कुमार विनोद

राग मज़हब का सुनाना आ गया
हुक्मराँ को गुल खिलाना आ गया

देखकर बाज़ार की क़ातिल अदा
ख़्वाहिशों को सर उठाना आ गया

सच को मिमियाता हुआ-सा देखकर
झूठ को आँखें दिखाना आ गया

ताश के पत्तों का है तो क्या हुआ
बेघरों को घर बनाना आ गया

कुछ भी कह देता मैं कल उस शोख़ से
बीच में रिश्ता पुराना आ गया

दूर खेतों में धुआँ था उठ रहा
और हम समझे ठिकाना आ गया