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राग मारवा / मंगलेश डबराल

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(अमीर ख़ाँ और पन्नालाल घोष को सुनने की स्मृति)

बहुत दूर किसी जीवन से निकल कर आती है
राग मारवा की आवाज़
उसे अमीर ख़ाँ गाते हैं अपने अकेलेपन में
या पन्नालाल घोष बजाते हैं
किसी चरवाहे की-सी अपनी लम्बी पुरानी बांसुरी पर
वह तुम्हारे आसपास एक-एक चीज़ को छूता हुआ बढ़ता है
उसके भीतर जाता है उसी का रूप ले लेता है
देर तक उठता एक आलाप धीरे-धीरे एकालाप बन जाता है
एक भाषा अपने शब्द खोजने के लिए फड़फड़ाती है
एक बांसुरी के छेद गिरते-पिघलते बहते जाते हैं
उसमें मिठास है या अवसाद
यह इस पर निर्भर है कि सुनते हुए तुम उसमें क्या खोजते हो

मारवा संधि-प्रकाश का राग है
जब दिन जाता हुआ होता है और रात आती हुई होती है
जब दोनों मिलते हैं कुछ देर के लिए
वह अंत और आरम्भ के बीच का धुंधलका है
जन्म और मृत्यु के मिलने की जगह
प्रकाश और अन्धकार के गडूड-मडूड चेहरे
देर तक काँपता एक विकल हाथ ओझल हो रहा है
एक आँसू गिरते-गिरते रुक गया है
कहते हैं मारवा को किसी आकार में समेटना कठिन है
वह पिघलता रहता है दूसरे रागों में घुल जाता है
उसमें उपज और विस्तार पैदा करना भी आसान नहीं
उसके लिए भीतर वैसी ही कोई बेचैनी वैसा ही कोई विराग चाहिए
तुम उसे पार्श्व-संगीत की तरह भी नहीं सुन सकते
क्योंकि तब वह सुस्त और बेस्वाद हो जाता है
गायक-वादक सब जानते हैं
लोगों को अब यह राग ज़्यादा रास नहीं आता
कोई व्यर्थ के दुःख में नहीं पड़ना चाहता
इन दिनों लोग अपने ही सुख से लदे हुए मिलते हैं

फ़िर भी भूले-भटके सुनाई दे जाता है
रेडियो या किसी घिसे हुए रेकॉर्ड से फूटता शाम के रंग का मारवा
अमीर ख़ाँ की आवाज़ में फैलता हुआ
या पन्नालाल घोष की बांसुरी पर उड़ता हुआ
आकार पाने के लिए तड़पता हुआ एक अमूर्तन
एक अलौकिकता जो मामूली चीज़ों में निवास करना चाहती है
पीछे छूटे हुए लोगों का एक गीत
जो हमेशा पीछे से आता सुनाई देता है
और जब कोई उसे सुनता न हो और कोई उसे
गाता-बजाता न हो तब भी वह गूंजता रहता है
अपने ही धीमे प्रकाश में कांपता हुआ मारवा.