राग रामकली / पृष्ठ - ५ / पद / कबीर
बाजैं जंत्रा बजावै गुँनी, राम नाँम बिन भूली दुनीं॥टेक॥
रजगुन सतगुन तमगुन तीन, पंच तत से साजया बींन॥
तीनि लोक पूरा पेखनाँ, नाँच नचावै एकै जनाँ।
कहै कबीर संसा करि दूरि, त्रिभवननाथ रह्या भरपूरि॥194॥
जंत्री जंत्रा अनूपन बाजै, ताकौ सबद गगन मैं गाजै॥टेक॥
सुर की नालि सुरति का तूँबा, सतगुर साज बनाया।
सुर नर गण गंध्रप ब्रह्मादिक गुर बिन तिनहुँ न पाया॥
जिभ्या ताँति नासिका करहीं, माया का मैण लगाया।
गमाँ बतीस मोरणाँ पाँचौ, नीका साज बनाया॥
जंत्री जंत्रा तजै नहीं बाजै, तब बाजै जब बाबै।
कहै कबीर सोई जन साँचाँ जंत्री सूँ प्रीति लगावै॥195॥
अवधू नादैं व्यंद गगन गाज सबद अनहद बोलै।
अंतरि गति नहीं देखै नेड़ा, ढूंढ़त बन बन डोलै॥टेक॥
सालिगराम तजौं सिव पूजौं, सिर ब्रह्मा का काटौं।
सायर फोड़ि नीर मुलकाऊँ, कुंवाँ सिला दे पाटौं॥
चंद सूर दोइ तूँबा करिहूँ, चित चेतिनि की डाँड़ी।
सुषमन तंती बाजड़ लागी, इहि बिधि त्रिष्णाँ षाँडी॥
परम तत आधारी मेरे सिव नगरी धर मेरा।
कालहि षंडूँ नीच बिहंडूँ, बहुरि न करिहूँ फेरा॥
जपौं न जाप हतौं नहीं गूगल पुस्तक ले न पढ़ाऊँ।
कहै कबीर परम पद पाया, नहीं आऊँ नहीं जाऊँ॥196॥
बाबा पेड़ छाड़ि सब डाली लागै मूँढ़े जंत्रा अभागे।
सोइ सोइ सब रैणि बिहाँणी, भोर भयो तब जागे॥टेक॥
देवलि जाँऊँ तौं देवी देखौं, तीरथि जाँऊँ त पाणीं।
ओछी बुधि अगोचर बाँणी, नहीं परम गति जाँणीं॥
साथ पुकारैं समण्त नाँहीं, आन जन्म के सूने।
बाश्ँधै ज्यूँ अरहट की टीडरि, आवत जात बिगूते॥
गुर बिन इहि जग कौन भरोसा, काके संग ह्नै रहिए।
गानिका के घरि बेटाअ जाया, पिता नाँव किस कहिए॥
कहै कबीर यहु चित्र बिरोध्या, बूझी अंमृत बाँणी।
खोजत खोजत सतगुर पाया, रहि गई आँवण जाँणीं॥197॥
भूली मालिनी, हे गोब्यंद जागतौ जगदेव, तूँ करै किसकी सेव॥टेक॥
भूली मालिन पाती तोड़ै, पाती पाती जीव।
जाँ मूरति को पाती तोड़ै, सो मूरति नर जीव॥
टाँचणहारै टाँचिया, दै छाती ऊपरि पाव।
लाडू लावण लापसी, पूजा चढ़ै अपार।
पूजि पुजारी ले गया, दे मूरति कै मुहिं छार।
पाती ब्रह्मा पुहपे बिष्णु, फूल फल महादेव।
तीनि देवौ एक मूरति करै किसकी सेव।
एक न भूला दोइ न भूला सब संसारा।
एक न भूला दास कबीरा, जाकैं राम अधारा॥198॥
सेई मन समझि संमर्थ सरणाँगता, जाकी आदि अंति मधि कोई न पावै।
कोटि कारिज सरैं दह गुँण सब जरै, नेक जो नाँव पनिब्रत आवै॥टेक॥
आकार की ओट आकार नहीं ऊँबरै, सिव बिरंचि अरु विष्णु ताँई।
जास का सेवक तास कौ पइहैं, इष्ट कौ छाड़ि आगे न जाहीं॥
गुँण मई मूरति सेइ सब भेष मिलि, निरगुण निज रूप विश्राम नाहीं।
अनेक जुग बंदिगी विविध प्रकार की, अंति गुँण का गुँणही समाहीं॥
पाँच तत तीनि गुण जुगति करि साँनिया, अष्ट बिन हेत नहीं क्रम आया।
पाप पुन बीज अंकुर जाँमैं मरै, उपजि बिनसैं जेती सर्ब माया॥
क्रितम करता कहै परम पद क्यूँ लहै, भूलि मैं पड़ा लोक सारा।
कहै कबीर राम रमिता भजै, कोई एक जन गये उतरि पारा॥199॥
राम राइ तेरी गति जाँणीं न जाई।
जो जस करिहैं सो तस पइहै, राजा राम नियाई॥टेक॥
जैसीं कहैं करैं जो तैंसीं, तो तिरत न लागै बारा।
कहता कहि गया सुनता सुणि गया, करणी कठिन अपारा।
सुरही तिण चरि अंमृत सरवै, लेर भवंगहि पाई।
अनेक जतन करि निग्रह कीजे, विषै बिकार न जाई॥
संत करै असंत की संगति, तासूँ कहा बसाई।
कहैं कबीर ताके भ्रम छूटै, जे रहे राम ल्यौ लाई॥200॥
कथणीं बदणी सब जजाल, भाव भगति अरु राम निराल॥टेक॥
कथैं बदै सुणै सब कोई, कथें न होई कीयें होई॥
कूड़ी करणीं राम न पावै, साच टिकै निज रूप दिखावै।
घट में अग्नि घर जल अवास, चेति बुझाइ कबीरा दास॥201॥