राजधानी में एक उज़्बेक लड़की / अरविन्द श्रीवास्तव
राजधानी के समाचार-पत्रों में
उज़बेक लड़कियों के किस्से
तकरीम से नहीं पढ़े जा रहे थे
कौतुहल, जुगुप्सा और हिक़ारत का हिस्सा थीं
ये लड़कियाँ
पुलिसिया रेड, हाय-प्रोफाइल जिस्म तिजारत की ख़बरें
सचित्र ‘बॉक्स’ में दिख रही थीं
मैं किसी गल्प के लिए ताना-बाना बुनने
खड़ा नहीं था उस बस-स्टॉप पर
जहाँ अपनी तमाम सभ्यता-संस्कृति, अतीत और वर्तमान को
समेटे खड़ी थी खंडित सोवियत गणराज्य की
एक मुकम्मल अदद लड़की... शायद स्त्री !
अभी-अभी ग्लोबल मार्केट में आई थीं
उज़बेक लड़कियाँ
नेपाल, बंगलादेश और थाइलैंड से बेहतर स्वाद के दावे लिए
अपनी गंध व मुलायमियत की बदौलत
ये वही लड़कियाँ थीं जिनके कंधों पर कभी
सेब की भरी हुई टोकरी
अपनी संस्कृति के उच्चतम आदर्श
चेहरे पर लालीपन की नैसर्गिता व
साम्यवादी सत्ता का था स्वाभिमान
ये लड़कियाँ उन महान योद्धाओं की वंशज थीं
जिनके घोड़े की टापों से थर्रा उठता था कभी
मध्यपूर्व तो कभी भारतीय प्रायद्वीप
सनातनी भूख और ढेर सारी औपचारिकताओं के साथ
एक आदिम-सुगन्ध जिसने मुझे जोड़ रखा था
बतौर समरकंद, बुखारा, ताशकंद और फरगाना से
अस्कद मुख़्तार की कहानियाँ, बावा मुराद के गीतों से
नक्काशीदार टोपी, जिसे रेडियो ताशकंद के मित्रों ने गिफ़्ट किया था मुझे
और चन्द उज़बेकी शब्द लबालब कंठ में अटके थे मेरे
कई दशकों से
उसके गले में भी कोई न कोई शोकगीत थे
कम्युनिस्ट सत्ता खोने के
किसी भोथरे चाकू से आपनी नसें
काटने का गम वह भी किसी गीत में छुपाए हुए थी
वैश्वीकरण की उड़ान में अन्दर ही अन्दर
सहमी थी मुस्कुराती हुई उज़बेक लड़कियाँ
समय की त्रासदी को वह चाहती थीं दरकाना
हमारे गाँव-क़स्बे से राजधानी गई लड़कियों के साथ,
जिनकी सबसे बड़ी विवशता थी
बाज़ारवाद में
अपनी-अपनी त्वचा बचाने की ।