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राजनीति और तुम? / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
ये क्या
तुम बन जाते हो उस भीड़ का हिस्सा
जो इकट्ठी की जाती है
प्रलोभनों की मीठी गोलियाँ देकर
यह जानते हुए भी
कि सिर पर ताज चिपक जाने के बाद
वे भूल जायेंगे तुम्हे तहखाने में पड़े कबाड़ की तरह
यह जानते हुए भी
सिर्फ भीड़ इकट्ठी कर मंच पर ललकार भरने से
उन्हें मिल जाएगा लायसेंस
निर्द्वंद खूनी होली खेलने का
तमाम शहरों को आग में झोंक देने का
यह जानते हुए भी
वे तुम्हारे सीने पर देखना चाहते हैं हमेशा
मुसीबतों को ताबीज की तरह लटकते हुए
कि तुम्हें भर पेट रोटी खाते देख
हो जाती है हरारत उन्हें
यह जानते हुए भी
कि तुम्हारे अश्रु नीर में ही
खिलते हैं सपनों के कंवल उनके
फिर आखिर क्यों
बन ही जाते हो उस भीड़ का हिस्सा तुम?