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राज़ दिल का अश्क़ बन-बनकर छलकता रोज ही / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

राज़ दिल का अश्क बन-बन कर छलकता रोज़ ही।
क्या कहूँ बेशर्म दिल फिर भी धड़कता रोज़ ही।

हम मिले थे जिस में पहली बार वो लम्हा सनम,
वक़्त की काली घटाओं में चमकता रोज़ ही।

दिन गुज़रता भूलने की कोशिशों में, शाम को,
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज़ ही।

मोड़ पर फिर से वही राहें मिलें क्या शहर भी,
खोज में तेरी मेरे सँग-सँग भटकता रोज़ ही।

है तसव्वुर ज़लज़ले सा, ख़्वाब हैं तूफ़ान से,
रोज़ करता हूँ मरम्मत, घर दरकता रोज़ ही।