राजा और किले का किस्सा / शिरीष कुमार मौर्य
एक है राजा
राजा अमनपसन्द है और अदबपसन्द भी
राजा शांति चाहता है राजा चाहता है झुकी हुई गरदनें
बंधे हुए हाथ
वह चाहता है उसके सामने कोई मुंह न खोले जब उसकी मर्जी हो तब बोले !
राजा के पास है किला
जिसमें राजा की पूरी-पूरी सुरक्षा है
किला शहर से बाहर है
आदमी से दूर किले की अपनी भाषा है
अपना मुहावरा
किले में जब भी राजा का खून गरमाता है
वह दरबार लगाता है
एक दरबार खास होता है और एक आम होता है
एक दरबार में काम होता है
और दूसरे से नाम होता है
दरबार में होते हैं दरबारी
जी-हुजूरिये
जिनकी सहायता से राजा इंसाफ करता है
जिसे चाहे दंड देता है जिसे चाहे माफ करता है
दरबार से बाहर होती है प्रजा
प्रजा बेचारी दुखी रहती है
अपने दुखों में
बालू के ढेर-सी ढहती है
एक दिन
प्रजा के बीच से निकलता है
एक आदमी
और किले के सामने खड़ा हो जाता है
उसकी नजर किले के द्वार से सीधी टकराती है
जिस पर लगी लोहे की जंजीर
अपने आप खड़क जाती है
राजा
इस आदमी से बहुत डरता है
फौरन उसके कत्ल का हुक्म जारी करता है
फिर जब पूरे देश में होता है अंधेरा
और रात गहराती है
किले के पत्थरों से मारे गए आदमी की आवाज आती है
किले की नींव में
उस आदमी का खून सरसराता है
और राजा
रात भर सो नहीं पाता है
फिर आता है अगला दिन
और राजा एक और आदमी को किले के सामने खड़ा पाता है
इस आदमी को देखकर
किले की दीवारें बुरी तरह हिलती हैं
इस आदमी की शक्ल
मारे गए गए आदमी से हू-ब-हू मिलती है !