राजू टेलर / सुशील मानव
काश! अपनी तकदीर पर भी चला पाता कैंची
काश! फालतू कपड़ों की तरह काट कर निकाल पाता जीवन से दुश्वारियाँ
काश! कि सिल पाता एक सुंदर कमीज की मानिंद, ज़िंदग़ी
कंझाये अलाव के पास बैठा
बैठा सोच रहा राजू, राजू टेलर
कभी एक छोटी सी दुकान का मालिक मुख्तियार था राजू
जिसके छत के बार्जे पे टँगे छोटे पीले बोर्ड पर
लाल अक्षरों में लिखा था, राजू टेलर
देश में एक भयंकर आँधी आई उस साल
उस साल कई बोर्ड गिरे
जो फिर न टँगे कभी
उनमें से ही एक बोर्ड ‘राजू टेलर’ भी था
ब्रांडों की नंगई नया चलन होकर सरे बाजार निकली
उस आँधी में दब मरी गुमनाम मौत
“राजू टेलर्स” की चिप्पी
मारे लाज के जो छुपी रहती थी कॉलर के नीचे
कितने अदब से बोलते थे लोग कभी
“मास्टर”
‘क्या मास्टर’ ,
‘कैसे हो मास्टर’
‘मास्टर राम राम’
दो-चार चेले तो हरदम दुकान में ही पड़े रहते
यूँ तो बारहमासी काम था, लेकिन
तीज-त्योहार, लगन के सीजन तुँह पे मुँह हुए रहते लोग
चिरौरी करते सो अलग, ‘बहुत अर्जेंट है मास्टर’
इस दर्म्यान राजू ने एक नामी कपड़ा कंपनी में टेलर की नौकरी पकड़ ली
चार महीने काम की बाढ़ तो छः महीने झूरा ही झूरा
अगला काम आने तक कंपनी सबको अवैतनिक छुट्टी पे भेज देती
मोबाइल पर ख़बर भेजने का आश्वासन देकर
राजू के जेब की सिलाई क्या टूटी
इंटरलॉक की हद फाँद कलह के फुचड़े उधड़ आए
घर में चीनी क्या खत्म हुई
कितनी कड़वी हो गई है जीवनसंगिनी की ज़ुबान
अदब के पिल्ले का कान उमेठ
सीधे नाफ़रमानी पे उतर आते बच्चे
कि क्योंकर वो उनका बाप हुआ
बीमारी की गुड़ुरी सिर पे धरे
चल पड़ा है राजू ईंटा-गारा करने
अचानक उस रोज बीच बाज़ार, शागिर्द पे उखड़ ही गया राजू
कि ‘स्साला गरियाय रहा है’
बीच-बचाव करते लोगों ने पूछा
क्या हुआ ? हुआ क्या?
थूक गटकते गटकते बुदबुदाया शागिर्द
मैंने तो बस इतना ही कहा था
‘जय राम मास्टर’।