रात्रिमध्ये / मनोज कुमार झा
तय तो था एक एक सुग्गे को बिम्ब-फल
उसका भी वो जो उदि्वग्न रात-भर ताकता रहता चाँद
अगोरता रहा सेमल का फल पिछले साल
वन-वन घूम रही प्यास की साही
निष्कंठ ढ़ूँढ़ती कोई ठौर पथराई हवा से टूट रहे काँटे
घम रहा रात का गुड़
निद्राघट भग्न पपड़िया रहा मन
खम्भे हिल रहे थे, तड़-तड़ फूट रहे थे खपड़े
ग्राह खींच रहा था पिता के पाँव
उस अंधड़ में बनाई थी कागज की नाव भाई की ज़िद पर
सुबह भूल गया था भाई, गल गई कहीं
या चूहे कुतर गए
या दादी ने रख दिया उस बक्से में जहाँ धरा हुआ है उनका रामायण
और सिंहासन बत्तीसी
छप्पर की गुठलियां दह गई
इधर की गुठली हुई आम किधर या सड़ गई
किसी लाश की लुंगी में फँसकर किसी डबरे में
मुठभेड़ के बाद वह आदमी सड़क हो गया
दौड़ रहे महाप्रभुओं के रथ, कल तो वो
डाभ मोला रहा था बच्चे संग लिए
वसन्त की उस सुबह रक्त में घुली थी जिसकी छुअन
क्या उसका चेहरा भी हो गया फटा टाट !
चेहरे क्यों हो जाते फसल कटे खेत एक दिन
ताजिया पड़ा हुआ ... निचुड़ती रंग की कीमिया पल पल ....
लुटती रफ़्ता काग़ज़ की धज ...
ये कहाँ चली छुरी कि गेन्दे पर रक्त की बूँदें
कुछ भी नहीं जान सका उस तितली की मृत्यु का
मैं तो ढ़ूँढ़ रहा था कबाड़ में कुरते का बटन
हर कठौती की पेंटी में छेद, हर यमुना में कालियादह
कहाँ भिगोऊँ पुतलियाँ ....... किस घाट धोऊँ बरौनियाँ .....
ताँत रँगवाऊँ कहाँ .... किस मरूद्वीप पर खोदूँ कुआँ
बहुत उड़ी धूल, पसरा स्वेद-सरोवर क्षितिज के पार तक
रौशनी सोख रही आँखों का शहद ....
धर तो दूँ आकाश में अपने थापे हुए तारे
... क्या नींद के कछार में बरसेंगी ओस
पंक हुए प्यास में जनमेगी हरी दूब जहाँ पांव दाब चलेंगे देवगण... !