भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात का एक ही बजा है अभी / ओंकार सिंह विवेक
Kavita Kosh से
रात का एक ही बजा है अभी,
यार घंटों का रतजगा है अभी।
हाथ यूँ रोज़ ही मिलाते हैं,
उनसे पर दिल नहीं मिला है अभी।
मुश्किलों को किसी की जो समझो,
वक़्त तुम पर कहाँ पड़ा है अभी।
सब हैं अनजान उसकी चालों से,
सबकी नज़रों में वो भला है अभी।
ज़िक्र उनका न कीजिए साहिब,
ज़ख़्म दिल का मेरे हरा है अभी।
गुफ़्तगू से ये साफ़ ज़ाहिर है,
आपको हमसे कुछ गिला है अभी।
और उलझा दिया सियासत ने,
हल कहाँ मसअला हुआ है अभी।