रात का हाल मुझ से पूछ / कैलाश मनहर
रात का हाल मुझ से पूछ !
पग पग पर मौत के जबाड़े थे,
हर तरफ ज़िन्दगी का क्रन्दन था,
बिलखते रास्ते बुलाते थे,
नस-नस में चुभते थे अँधेरे --
मैं ख़ुद को क़त्ल करके भी
ख़ुश था --
रात का हाल मुझ से पूछ !
सब अपने आप से नाराज़ थे और
हर कोई भीड़ में अकेला था
राख उड़ती थी उजले सपनों की --
धुआँ था सुलगती मुहब्बत का
धूप में रखा था मोम का पुतला
ख़ून की बारिश से लबालब था ताल
सूरज का, नाम भी गुनाह था जिसका
यह सुबह यूँ ही नहीं देखी है ----
रात का हाल मुझ से पूछ !
हाड़-हाड़ लकड़ी-सा जलता था
रोम-रोम रोता था, लहू की बूँदें
साँसों में तेजाबी कालिख को पीना था,
सीने में चुभते थे, ज़हर बुझे तीर-शूल
आँखों में यादों की लपटें दहकती थीं
डूबना-उबरना था, काल के प्रवाह में
थोड़ें-से उजाले की, छोटी-सी चाहत में
तिल-तिल कर मरना था, बूँद-बूँद झरना था,
डर-डर कर मरना था, मर-मर कर जीना था --
रात का हाल मुझ से पूछ !
पत्थर पर हरी-भरी फ़सल लहलहानी थी,
अँधकार पी-पी कर रोशनी उगलनी थी,
मरूस्थल में अमृत का सागर सरसाना था,
तूफ़ानी लहरों पर, जर्जर नाव खेनी थी --
रात का हाल मुझ से पूछ !
बिगड़ी हुई दुनिया की, हालत बदलनी थी,
टूटे हुए दिल में, साबुत कामना मचलनी थी....