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रात ग़म की बसर नहीं होती / ईश्वरदत्त अंजुम

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रात ग़म की बसर नहीं होती
ऐ ख़ुदा क्यों सहर नहीं होती।

उसके जलवे को देख ले दिल में
ऐसी तो हर नज़र नहीं होती

वो तो बैठा है छुप के हर दिल में
दिल को लेकिन ख़बर नहीं होती

दिल ही रोता है आंख के बदले
आंख अब अपनी तर नहीं होती

वो शबें भी गुज़र ही जाती हैं
जिन शबों की सहर नहीं होती

अपने असरात छोड़ जाती है
इल्तिजा बेअसर नहीं होती

रास्ते भी भटक गये अंजुम
राह भी हमसफ़र नहीं होती।