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रात पिया पिछवारे / केदारनाथ सिंह

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रात पिया, पिछवारे
पहरू ठनका किया ।

कँप-कँप कर जला दिया
बुझ -बुझ कर यह जिया
मेरा अंग-अंग जैसे
पछुए ने छू दिया

बड़ी रात गए कहीं
पण्डुक पिहका किया ।

आँखड़ियाँ पगली की
नींद हुई चोर की
पलकों तक आ-आकर
बाढ़ रुकी लोर की

रह-रहकर खिड़की का
पल्ला उढ़का किया ।

पथराए तारों की जोत
डबडबा गई
मन की अनकही सभी
आँखों में छा गई

सुना क्या न तुमने,
यह दिल जो धड़का किया ।