भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात पिया पिछवारे / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
रात पिया, पिछवारे
पहरू ठनका किया ।
कँप-कँप कर जला दिया
बुझ -बुझ कर यह जिया
मेरा अंग-अंग जैसे
पछुए ने छू दिया
बड़ी रात गए कहीं
पण्डुक पिहका किया ।
आँखड़ियाँ पगली की
नींद हुई चोर की
पलकों तक आ-आकर
बाढ़ रुकी लोर की
रह-रहकर खिड़की का
पल्ला उढ़का किया ।
पथराए तारों की जोत
डबडबा गई
मन की अनकही सभी
आँखों में छा गई
सुना क्या न तुमने,
यह दिल जो धड़का किया ।