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रात शांत थी, चीड़ों के पीछे / इवान बूनिन

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रात शांत थी, चीड़ों के पीछे
           बहुत देर में झाँका चाँद
छज्जे का दरवाज़ा चरमरा रहा था
           बेचैनी उसकी मैं रहा भाँप
हम फिर से झगड़ पड़े थे उस दिन
           हमें नींद नहीं आ रही थी
क्षण अद्भुत्त था, फूलों की क्यारी
           हम पर ज्यों खिलखिला रही थी

तब हम किशोर थे या कहो युवा
           तू सोलह की, सत्रह का मैं था
तुझे याद है क्या, प्रिय, तूने
दरवाज़ा पूरा खोल दिया था ?
           क्योंकि तुझे चाँदनी से प्रणय था
फिर होंठ ढक लिए तूने रुमाल से
           तेरे आँसुओं से जो तर था
तू रो रही थी फूट-फूट कर
काँप रही थी
           हेयरपिन गिरा रही बालों से,
           थककर हाँफ रही थी
दिल दुखी था मेरा भी बेहद तब,
चूँकि मैं था संघाती
           प्रेम में उद्वेलित था मन
           तुझे देख फट रही थी छाती...

मित्र मेरी ! यदि होता इस समय
यह मेरे बस में
           लौटा लेता मैं आज फिर
           क्षण स्नेह का वह पुनः

(1916)

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय