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रात / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
कभी माँसल, कभी धुआँती कभी डूबी हुई पसीने में
ख़ूब पहचानती है रात अपनी देह के सभी रंग
कभी इसकी खड़खड़ाती पसलियों में गिरती रहती पत्तियाँ
कभी टपकती ठँडी ओस इसके बालों से
यह खुद चुनती है रात अपनी देह के सभी रंग
यह रात है जो खुद सजाती है अपनी देह पर
लैम्प पोस्ट की रोशनी और चाँदनी का उजास
ये तारे सब उसकी आँख से निकलते है
या नहीं निकलते जो रुके रहते बादलों की ओट
ये उसकी इच्छाएँ हैं अलग-अलग सुरों की हवाएँ
तुम्हारी वासना उसका ही खिलवाड़ है तुम्हारे भीतर
ऐसे ही तुम्हारी कविता
यह एकांत उसकी साँस है
जिसमें डूबता आया है दिनों का शोर और पंछियों की उड़ान
तुम्हारा दिन उसी का सपना है ।