राधा मानस सिन्धु में उठहिं / हनुमानप्रसाद पोद्दार
राधा-मानस-सिन्धु में उठहिं तरंग अपार।
प्रियतम सुख पहुँचावनी, मोहिनि कोटिन मार॥
करहिं बिबिध बृंदाबिपिन पिय सँग नित्य बिहार।
निभृत निकुंज नवीन में करि नव-नव सिंगार॥
निपुन परम रसकेलि में नित नबीनतम भाव।
प्रियतम-सुख हित करहिं नित, बढ़त नित नये चाव॥
पिय के हिय की जानहीं स्थूल-सूक्ष्म सब बात।
करहीं तैसौइ आचरन, छाया ज्यौं दिन-रात॥
पिय के नित अनुकूल अति करहिं सकल आचार।
करहिं कदापि नहीं तनिक पिय-प्रतिकूल बिचार॥
करि प्रतिकूला चरन पुनि, बैठेहिं रूठि निकुंज।
रसिक मनावहिं जाइ तब दुखित-हृदय सुख-पुंज॥
परम चतुर यवहार में, सब बिधि बिकसित ग्यान।
पै भोरी पिय निकट अति, सरल-हृदय निर्मान॥
सदा सुखमई सहज अति, नित आनंद-बिभोर।
पै पिय-सुख हित दुखित ह्वै, करहिं सु-चिंता घोर॥
रहहिं नित्य निर्भय सहज, कबहूँ होहिं न भीत।
एकाकी अभिसार में नीरव गावहिं गीत॥
कबहुँ अकारन मानि भय, सहज सुकंपित गात।
जाय छिपहिं पिय-भुजनि में बिह्वल अँग कसवात॥
पिय कौ पीतबसन निरखि, समुझि आपनौ रूप।
मिलहिं जाय तामें तुरत, सोभा अमित अनूप॥
कबहुँ जो मलयानिल बसन अँग उड़ाय लै जाय।
पिय पीतांबर तैं तुरत ढँकि अँग लेहिं दुराय॥
तरुन तमालनि तै लिपटि कनक-लतनि कौं देखि।
लिपटहिं स्याम तमाल सौं लता आपु ही लेखि॥
कबहूँ सुरभित कुसुम चुनि, रचि सुचि सुंदर हार।
पहिरावहिं आनंद भरि पिय-गल करि मनुहार॥
बिकसित लखि सुरभित सुमन, कहि अति बिनय समेत।
प्राननाथ! चुनि लाइयै हार रचन के हेत॥
पुष्प चयन करि प्रानधन देहिं जबहिं भरि मोद।
लेहिं अमित आनंद सौं करि रस-भरित बिनोद॥
कबहुँ मान करि मानिनी करहिं नहीं स्वीकार।
जब पिय रचि पहिरावहीं मधुर मनोहर हार॥
देखि प्रानबल्लभ बदन, पुनि छायौ संताप।
ह्वै याकुल, तजि मान सब, जाइ मनावहिं आप॥
कबहूँ रचि निज कर रुचिर भोजन चारि प्रकार।
करवावहिं अति नेह तैं पिय कौं, करहिं बयार॥
कबहूँ पिय कर तैं स्वयं लेहिं ग्रास अति मोद।
जबै देहिं निजभुक्त सो भरि हिय परम प्रमोद॥
या बिधि स्याम-अभिन्न तन स्यामा सँग नित स्याम।
आलंबन रस मधुर के, लीला करहिं ललाम॥