राधे! क्यों मैं रीझा तुम पर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
राधे! क्यों मैं रीझा तुम पर, क्यों मैं तुममें हूँ आसक्त।
आज बताता हूँ-रहस्य कुछ, क्यों मैं सदा तुम्हारा भक्त॥
तुममें जो सौन्दर्य अतुल है निर्मल मधुर विचित्र अपार।
वैसा कहीं न देखा मैंने, वर्द्धनशील सतत सुकुमार॥
तनका भी सौन्दर्य तुम्हारा सर्व-विलक्षण परम अनूप।
पर मैं देख पा रहा, आत्म परम तुम्हारा मानस रूप॥
पावन मन है बना तुम्हारा शुद्ध प्रेम का पारावार।
नहीं कहीं कुछ मिश्रण उसमें, नहीं तनिक-सा कहीं विकार॥
नहीं मलिन ममता, मैं-पन कुछ, नहीं मोह कुछ राग-द्वेष।
नहीं कहीं अभिमान तनिक, निज-सुख-इच्छा का कहीं न लेश॥
सर्व त्यागकर, मेरे सुख के लिये किया जो आत्मोत्सर्ग।
नहीं कहीं भी तुलना उसकी सहज, विमलतम वर्जित-वर्ग॥
अग-जग भुक्ति-मुक्ति सबसे तुम, हृदय देश को खाली कर।
रखा केवल शुद्ध हृदय में नित्य निरन्तर मुझको भर॥
यह मानस-सौन्दर्य तुम्हारा, प्रकट नित्य अंग-प्रत्यंग।
मुग्ध बनाता रहता मुझको, नव-नव नित्य दिखाता रंग॥