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रामगुणगान / तुलसीदास/ पृष्ठ 3

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रामप्रेम की प्रधानता

 ( छंद 115 से 116 तक)

(115)

कनककुधरू केदारू, बीजु सुंदर सुरमति बर।
सींचि कामधुक धेनु सुधामय पय बिसुद्धतर।।

तीरथपति अंकुरसरूप जच्छेस रच्छ तेहि।
 मरकतमय साखा-सुपुत्र, मंजरिय लच्छि जेहि।।


कैवल्य सकल फल, कल्पतरू, सुभ सुभाव सब सुख बरिस।।
कह तुलसिदास ,रघुबंसमनि, तौ कि होइ तुअ कर सरिस।।

(116)

जाय सो सुभटु समर्थ पाइ रन रारि न मंडै।
जाय सो जती कहाय बिषय-बासना न छंड़ै।

जाय धनिकु बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महि।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महि।

सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दासु तुलसी कहै, जौं न रामपद नेहु नित।।