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रामदीन-1 / दिनेश जुगरान

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सरसराती हुई ज़िन्दगी
धूप-छांव की
सरहदों से दूर
रेगिस्तान के उस टीले पर
खड़ी है
ठिठुर कर
पक्षी भी जहाँ उड़ने से डरते हैं

तुमने कौन सा
सच
उस हथौड़े की आवाज़ में
पा लिया है
रामदीन!
जिसे पीटते हुए हल्के क़दमों से
तुम रोज़ शाम को घर लौटते हो
धूप-छांव की सरहदों के
न तो इस पार हो
न उस पार

जब कभी तेज़ क़दमों से कोई भी
गुज़रता है तुम्हारे टपरे से
उस रात
एक नई आकृति
अपनी दीवारों पर बनाकर
सुबह होने तक मिटा देते हो रामदीन!

उस हँसी का अर्थ
मेरी समझ के बाहर है
जो तेज़ आवाज़ों की ओर
देखकर
आती है तुम्हारे होंठों पर
उस रात
तुम सारे किवाड़ खोलकर
आराम से सोते हो
उन तेज़ चीखती आवाज़ों से
तुम्हें कोई डर नहीं लगता

कितनी गहरी नींद
सोते हो
उस रात
तुम रामदीन!

कभी-कभी लगता है
सारा इतिहास
तुम्हारी आँखों के बीच
उभरी हुई लकीरों में सिमट आया है
दर्द और खुशहाली

हथौड़े से पीट-पीट कर
बिछा दी है तुमने
अपने आँगन की गीली धूप
और मिट्टी के साथ

तुम्हारी आँखों का उजाला
उस धूप के टुकड़े-सा है
जो वर्षों से
तुम्हारे दरवाजे़ के
एक ख़ास स्थान पर चमकता है

कोई दहशत नहीं है
तुम्हारी आँखों में रामदीन!

तुम्हें खौफनाक सपने भी नहीं आते
नींद में बड़बड़ाते भी नहीं हो
कंधे तुम्हारे तने हुए नहीं हैं

न तुम
कहीं से आए हो
न तुम्हें
कहीं जाना है
तुम
जब बैठते हो
जहाँ बैठते हो
बड़ी देर तक बैठते हो
पूरे माहौल से
एक रिश्ता कायम कर लेते हो
रामदीन!