भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रामभरोसे / पूर्णिमा वर्मन
Kavita Kosh से
अमन चैन के भरम पल रहे -
रामभरोसे!
कैसे-कैसे शहर जल रहे -
राम भरोसे!
जैसा चाहा बोया-काटा
दुनिया को मर्ज़ी से बाँटा
उसकी थाली अपना काँटा
इसको डाँटा उसको चाँटा
रामनाम की ओढ़ चदरिया
कैसे आदमज़ात छल रहे-
राम भरोसे!
दया धर्म नीलाम हो रहे
नफ़रत के ऐलान बो रहे
आँसू-आँसू गाल रो रहे
बारूदों के ढेर ढो रहे
जप कर माला विश्वशांति की
फिर भी जग के काम चल रहे-
राम भरोसे!
भाड़ में जाए रोटी दाना
अपनी डफली अपना गाना
लाख मुखौटा चढे भीड़ में
चेहरा लेकिन है पहचाना
जानबूझ कर क्यों प्रपंच में
प्रजातंत्र के हाथ जल रहे-
राम भरोसे!