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रायटर्स पार्क / नारायण सुर्वे

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--और ये दरख़्त, जिन्हे हमने
अल्मा-अता में रोपा; उन पर
बाइज़्ज़त मिट्टी डाली; पानी भी ।
वे जब तेरे हमउम्र हो जाएँगे, तब--
इस अफ़्रो-एशियाई रायटर्स पार्क की ओर से जानेवालों पर
अपनी छाया धरेंगे ।

अब मैं, उम्र पैंतालीस का आदमी;
अलेक्सी ला गुमा साठ के आसपास;
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उससे भी ज़्यादा;
मतलब क्या हुआ ?
"तो ये दरख़्त इन बूढ़ों के लगाए हुए..."
ऐसा तो कहेगा ही
लेकिन वह तेरा सिर्फ़ जोश ही कहा जाएगा

वे आए थे जंगल से, जलावतनी से
पीठ पर पड़े बलों का बल लेकर
आख़िरी बस छूट गई तो अँधेरे के
साथ चले
थकान आ ही गई; तो किसी बाग से
थकान को समझा-बुझा कर मुड़ चले
रेस्त्राँ के पास मुड़ते वक़्त, सूखी ज़बान से
होठों को गीला कर चले
ऐसे सपूत;
जाम्बिया, घाना, मोज़ाम्बीक के "

मैं भी इस गंगा किनारे वाले एक शहर से
आया था;
यंत्रस्वामी के हृदय का अभंग बनकर ।
मेरा भी अपना एक सपना था रे,
जिसे मैं पूरा नहीं कर पाया;
रोज़मर्रा की दौड़धूप ने उतनी फ़ुरसत ही नहीं दी ।
लेकिन आने वाली दुनिया तेरी ही है; और
यह विरासत तेरे हवाले कर रहे हैं ।

आज मैंने तेरे लिए मकान नहीं बनवाया है;
ज़मीन-जायदाद, रुपया-पैसा कुछ भी नहीं ।
घर फूँक जो निकल पड़ते हैं
उनके दिमाग़ में ऐसी बात कभी आती ही नहीं ।
फिर भी; एक बात कह देता हूँ; हम सूर्यपुत्र हैं
और सूर्यपुत्र को भी थकान तो होती ही है; तो
अल्मा-अता में आराम के लिए
एक छाया प्रतीक्षा में खड़ी होगी ।


मूल मराठी से निशिकांत ठकार द्वारा अनूदित