रावलपिंडी की लोई में कविता - 2 / कुमार कृष्ण
कुमार विकल तुम चुपचाप छोड़ गए चण्डीगढ़
तुम्हारी कविताओं में मौजूद हैं-सैंकड़ों चण्डीगढ़
कविता कि आखिरी किताब में दर्ज तुम्हारी उदासी
दुःखों की तफसील के पहले पन्ने पर
अपनी पत्नी का नाम लिखकर
तुम जिस जादूगर की तलाश करते रहे
हमें नहीं पता था तुम उसे ढूंढ़ लोगे इतनी जल्दी
तुम्हारी कविता में-
पत्नी की साढ़े पांच मीटर पुरानी साड़ी से निकाली गई
बच्ची की थिगलियों वाली कमीज़
चमकती है जब भी
मुझे तुम्हारी आंखें
किसी झील में बदलती नज़र आती हैं
मैंने जितनी बार-
तुम्हारी कविता के शब्द को थपथपाया
वह मुझे हर बार गर्म और गीला मिला
पंजाबी अंदाज़ में लोहड़ी मांगता
कभी किसी साइकिल, रिक्शा में
या फिर लोकल बस के दरवाजे से लटका
बन्दूक की गोलियाँ खाता
तुम चण्डीगढ़ में भी अपने साथ लेकर आए थे
एक पूरी रावलपिण्डी
जिसे तुमने संभाल कर रखा पचास बरस तक
अब वजीराबाद से नहीं आएगा
कोई दूसरा कुमार विकल
नहीं लिखेगा कोई माँ की झुर्रियों पर महाकाव्य
तुम छोड़ चुके हो निरूपमादत्त के नाम
अपनी आखिरी चिट्ठी
अब किस जगह भेजे वह उस चिट्ठी का उत्तर।