तुम न रहे, संसार अँधेरा!
उगते-उगते डूब गया दिन,
तुम थे जिसका अरुण सवेरा!
धरती के युग-युग के तप ने
पा कर तुमको स्वर-वर-सा अपने,
आँखों में आँके जो सपने
श्रुति के गीत बने द्युति-खग वे,
छोड़ गए जग रैन-बसेरा!
धन्य धरा नव-राग सरस से
शत-शत शतकल खोल दरस के
पुलक रही थी, पुलक-परस से;
पर, सहसा, सुख के सरवर पर
डाल दिया दुर्दिन ने डेरा!
अघहारी, ' नवजीवन, -दाता!
कोटि-कोटि प्राणों के त्राता!
अभिनव-भारत-भाग्य विधाता!
तप के तपन! तपो उर-नभ में,
रह न जाय किल्विष का फेरा।