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रास्ते मुड़ गये / अवनीश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
भीड़ संशय में
खड़ी बतिया रही,
रास्ते चुपचाप
जाकर मुड़ गये
कन्दराएँ चीखतीं
पर्वत
खड़े हैं, मौन हैं,
रात को अंधे
कुएँ में
झाँकते ये कौन हैं?
हम रहे अनजान
हरदम ही यहाँ,
हाथ के तोते
अचानक उड़ गये
घुड़सवारों
की तरह ही
पीठ पर कसने लगीं,
मृत्यु-शैया
पर अचानक
सिलवटें गढ़ने लगीं,
धूप की सतहें
कसी हैं जीन सी
राह के हमदर्द
लैया-गुड़ गये
रथ कई गुजरे
यहाँ
से आज तक,
धर्म के पथ से
असुर
के राज तक,
आहटें,हलचल
अधिक जिससे मिलीं,
लोग उस इतिहास
से ही जुड़ गये