राहों के ऊँच-नीच ज़रा देख-भाल के / सज्जाद बाक़र रिज़वी
राहों के ऊँच-नीच ज़रा देख-भाल के
हाँ रह-रव-ए-मुराद क़दम रख सँभाल के
फ़ित्नों को देख अपने क़दम रोक बैठ जा
रातें ये आफ़तों की हैं ये दिल वबाल के
मैं सर-गिराँ था हिज्र की रातों के क़र्ज़ से
मायूस हो के लौट गए दिन विसाल के
कुछ ये न था की मैं ने न समझी बिसात-ए-दहर
मैं ख़ुद ही खेल हार गया देख भाल के
सामान-ए-दिल को बे-सरोसामानियाँ मिलीं
कुछ और भी जवाब थे मेरे सवाल के
लम्हों की लय पे गुज़री हैं रातें नशात की
किस धुन में काटेंगे ये रंज ओ मलाल के
तख़्लीक़ है मेरी तेरी तख़्लीक़ से अलग
मैं भी बनाता रहता हूँ पैकर ख़याल के
प्यासी ज़मीन दिल है पड़ा क़हत-ए-फ़स्ल-ए-शौक़
हाँ ऐ हवा किधर गए दिन बर-शिगाल के
‘बाक़र’ ये दाँत बीच ज़ुबाँ बंद क्यूँ हुई
क़ाएल तो आप भी थे बहुत क़ील ओ क़ाल के