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रिमझिम में सुनाए कोई कविता / कुमार रवींद्र

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ज़रा सोचो
घुप अँधेरा हो
और उसमें पढ़ी जाए कोई कविता

आरती की धुन बसी हो
गूँज उसमें हो नमाज़ों की
ज़िक्र हो शैतान बच्चों का
बात कनखी के तकाज़ों की

नाव में
बैठे हुए हम हों
और रिमझिम में सुनाए कोई कविता

झील पर संतूर बजता हो
याद में भीगी लटें भी हों
जंगलों के बीच
झरने या नदी की आहटें भी हों

और ऐसे में
अचानक
उझक सीने में समाए कोई कविता

कुछ न दीखे उस अँधेरे में
और सब कुछ दे दिखाई भी
कहीं पर लोबान महके
कहीं वंशी दे सुनाई भी

और भीतर
जो नदी है
उसी के तट पर सिराए कोई कविता