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रिहाई / वैशाली थापा
Kavita Kosh से
सूंघ लेती है आँख
प्रेम की महक
झूठ की दुर्गन्ध।
चख लेती है नाक
पहली बारिश की मिट्टी
आग में भुनता ज़िन्दा आदमी।
कान सिहर जाते है
उसके नाम की छुअन से
या मौत की चीख़ से।
त्वचा सुन लेती है
स्पर्श की गूंज
और सदियों याद रखती है
देह की आवाज़।
मगर जीभ देख नहीं पाती
शरीर की दासता
और गुलाम पिंजरे के भीतर
आज़ाद रूह।