रीतते हैं नेह-मनके / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
रीतते हैं नेह मनके, आर्द्र पलकों से निरंतर,
रिक्त उर में भाव मधुमय, तुम कहो किस भाँति लाऊँ?
अब न ऐसी यामिनी प्रिय! स्वप्न जिसके हों सुवासित।
अब न ऐसी दामिनी जो, नेह का नभ हो विभासित।
चिर-विरागी राग हूँ मैं, प्रीत यह कैसे जताऊँ?
रिक्त उर में भाव मधुमय, तुम कहो किस भाँति लाऊँ?
नेत्र अधजल, पीर परिमल, यंत्रणा नृत! नव्य, निर्मल।
भाव प्रेमिल खो गए सब, नित हृदय के ताप से जल।
व्यर्थ गाकर गीत कह दो, मैं तुम्हें कैसे रिझाऊँ?
रिक्त उर में भाव मधुमय, तुम कहो किस भाँति लाऊँ?
स्नात है तेरी सुरभि से, चिर वियोगी राग मेरा।
है विसिंचित दग्ध-रव से, हे शुभे! अनुराग मेरा।
क्यों मृषा अनुबंध प्रेमिल, पागलों-सा गुनगुनाऊँ?
रिक्त उर में भाव मधुमय, तुम कहो किस भाँति लाऊँ?